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Navratri 2025 Vrat Katha : नवरात्रि व्रत की कथा, मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए 9 दिन जरुर करें इस कथा का पाठ

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बृहस्पति जी बोले- हे ब्रह्मा जी! आप बहुत ही बुद्धिमान, चारों वेद और सर्वशास्त्र को जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हो। हे भगवन! कृपा कर यह बताएं कि चैत्र, अश्विन, माघ और आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत क्यों किया जाता है? हे प्रभु ! इस व्रत को करने से क्या फल प्राप्त होता है? इस व्रत को करने की क्या विधि है? और सबसे पहले इस व्रत को किसने किया? कृपया करके मुझे सब कुछ विस्तार से कहिए। बृहस्पति जी का ऐसा प्रश्न सुनकर ब्रह्मा जी कहने लगे हे बृहस्पति ! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है। तो सुनो जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण को ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं। यह नवरात्र व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से संतान चाहने वाले को संतान सुख, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या और सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है और कारागार में पड़ा हुआ मनुष्य बंधन से छूट जाता है। मनुष्य की तमाम विपत्तियां दूर हो जाती हैं और उसके घर में संपूर्ण सम्पत्तियां आकार उपस्थित हो जाती हैं। काक बन्ध्या के इस व्रत के करने से संतान हो जाता है। समस्त पापों को दूर करने वाले इस व्रत के करने से ऐसा कौन-सा मनोरथ है जो सिद्ध नहीं हो सकता।



ब्रह्मा जी! आगे बताते हैं कि यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन अपने बांधवों सहित नवरात्रि व्रत की कथा श्रवण करे। हे बृहस्पते! जिसने पहले इस महाव्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूं। ब्रह्मा जी बोले तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी के वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे प्रभु! मनुष्यों को कल्याण करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहा, मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण आए हुए मुझ पर कृपा करो। ब्रह्मा जी बोले- पीठत नाम के नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके संपूर्ण सद्गुणों से युक्त मानों ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो ऐसी यथार्थ नाम वाली सुमति नाम की एक अत्यंत सुन्दर कन्या पैदा हुई। वह कन्या सुमति अपने घर के बालकपन में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुए इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था। उस समय वह भी नियम से वहां उपस्थित होती थी। एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन 'में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री ! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ठी और जय माता दी जय माता दी दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा । इस प्रकार कुपित पिता के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि हे पिता जी! मैं आपकी कन्या हूं। मैं आपके सब तरह से आधीन हूं, जैसी आप की इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है, मेरा तो इस पर पूर्ण विश्वास है।



व्यक्ति न जाने कितने मनोरथों को लेकर चिंतन करता है पर होता वही है जो भाग्य में विधाता ने लिखा है। जो जैसा करता है उसको फल भी उस कर्म के अनुसार ही मिलता है, क्योंकि कर्म करना मनुष्य के आधीन है। पर फल देना के अधीन है। जैसे अग्नि में पड़े हुए तृण दी उसको अधिक प्रदीप्त कर देते हैं उसी तरह अपनी कन्या के ऐसे निर्भयता से कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राह्मण को बहुत ही ज्यादा क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठ के साथ विवाह कर दिया और अत्यंत क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य भरोसे पर रहकर तू क्या करती है?



इस प्रकार से कहे हुए पिता के कटु वचनों को सुनकर सुमति बहुत दुखी हुई और अपने मन में विचार करने लगी कि अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुःख का विचार करती हुई वह अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की। उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो वरदान मांग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल देने वाली हूं। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हो, यह सब मेरे लिए कहा और अपनी कृपा दृष्टि से मुझ दासी को कृतार्थ करो। ऐसा ब्राह्मणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदि शक्ति हूं और मैं ही ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूं। मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों को दुःख दूर कर उसको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी ! मैं तुम पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।



तुम्हारे पूर्व जन्म का पूरा वृत्तान्त सुनाती हूं सुनो! तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न जल ही पिया। इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हें मनोवांछित वस्तु दे रहीं हूं तुम्हारी जो इच्छा हो सो मांगो इस प्रकार दुर्गा के कहे वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे ! आपको प्रणाम करती हूं। कृपा करके मरे पति के कोढ़ को दूर करो। देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस व्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कोड़ दूर होने के लिए अर्पण करो मेरे प्रभाव से तेरा पति कोढ़ से रहित और सोने के समान शरीर वाला हो जायेगा। ब्रह्मा जी बोले इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है।



ऐसे बोली। तब तक उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ठ हीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया जिसकी कान्ति के सामने चन्द्रमा की कान्ति भी क्षीण हो जाती है। वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रमी वाली समझकर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे ! आप दुर्गत को दूर करने वाली तीनों जगत् का सन्ताप हरने वाली, समस्त दुःखों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न होने पर मनोवांछित वस्तु को देने वाली और दुष्ट मनुष्य का नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत की माता और पिता हो। हे अम्बे! मुझ अपराध रहित अबला की मरे पिता ने कुष्ठ के साथ विवाह कर मुझे घर से निकाल दिया। उसकी निकाली हुई मैं पृथ्वी पर घुमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी 'समुद्र से उद्धार किया है। हे देवी! आपको प्रणाम करती हूं। मुझ दीन की रक्षा करो। ब्रह्मा जी बोले कि हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की, उससे की हुई स्तुति सुनकर देवी को बहुत सन्तोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! तुम्हारे उदायल नाम का एक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र ही होगा। ऐसा कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी और जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनोवांछित वस्तु तुम मांग सकती हो ऐसा भगवती दुर्गा का वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गे! अगर आप मेरे पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्रि विधि बताइए। हे दयावती! जिस विधि से नवरात्र व्रत करने से आप प्रसन्न होती हैं उस विधि और उसके फल को मेरे लिए विस्तार से वर्णन करें।



ब्राह्मणी के वचन सुनकर मां दुर्गा ने मुस्कराते हुए कहा "हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हें वह नवरात्र व्रत विधि बताती हूं, जो समस्त पापों का नाश कर मोक्ष प्रदान करने वाली है। इस व्रत का महात्म्य इतना महान है कि इसे करने मात्र से जीवन के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। मां ने आगे बताया "आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नौ दिनों तक पूरे विधि-विधान से व्रत करना चाहिए। यदि कोई पूरे दिन का व्रत न कर पाए तो एक समय भोजन कर सकता है। विधिपूर्वक किसी विद्वान ब्राह्मण से परामर्श लेकर घट स्थापना करें, वाटिका बनाएं और उसे प्रतिदिन जल दें। फिर महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की प्रतिमाएं स्थापित कर नित्य पूजा-अर्चना करें और पुष्पों से अर्घ्य अर्पित करें। उन्होंने अर्घ्य का महत्व समझाते हुए कहा "बिजौरा के फूल से रूप, जायफल से कीर्ति, दाख से कार्य सिद्धि, आंवले से सुख और केले से आभूषणों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार हवन में खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, नारियल और अन्य सामग्री अर्पित करनी चाहिए। गेहूं से लक्ष्मी, खीर और चंपा से धन, आंवले से यश, केले से पुत्र, और कमल से राज सम्मान मिलता है।"



मां दुर्गा ने समझाया "व्रती को आचार्य को विनम्रता से प्रणाम कर दक्षिणा देनी चाहिए। इस व्रत को जो भी श्रद्धा से करता है, उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि नौ दिनों में किया गया दान और पुण्य करोड़ों गुना फल देता है। यह व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गईं। ब्रह्मा जी ने बृहस्पति से कहा "जो भी स्त्री या पुरुष इस व्रत को करता है, उसे इस लोक में सुख और अंततः मोक्ष प्राप्त होता है। हे बृहस्पति! तुमने लोकहित के लिए इस व्रत के विषय में प्रश्न किया, इसलिए तुम धन्य हो।" ब्रह्मा जी के वचनों को सुनकर बृहस्पति जी आनंद और कृतज्ञता से भर उठे और कहा कि "हे प्रभो! आपने अमृत समान इस व्रत का महत्व सुनकर मुझे अनुग्रहित किया। वास्तव में यही भगवती शक्ति संपूर्ण जगत का पालन करने वाली है, जिसके प्रभाव को जान पाना कठिन है।"



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