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'शोले' के 50 साल: हेमा मालिनी क्यों 'बसंती' का किरदार नहीं निभाना चाहती थीं?

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Getty Images हेमा मालिनी का कहना है कि 'बसंती' का रोल निभाने में उनकी कतई दिलचस्पी नहीं थी और उन्होंने इसके लिए रमेश सिप्पी को मना कर दिया था

अपने वक्त में कामयाबी के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली फ़िल्म 'शोले' (1975) को भारतीय सिनेमा में 'मील का पत्थर' माना जाता है.

बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता की नई इबारत लिखने वाली फ़िल्म 'शोले' के छोटे-बड़े हर एक किरदार को फ़िल्म की रिलीज़ के 50 साल बाद भी बख़ूबी याद किया जा रहा है.

बात चाहे 'जय', 'वीरू', 'गब्बर', 'ठाकुर', 'बसंती' की हो या फिर 'कालिया', 'सांबा', 'मौसी जी', 'जेलर' या 'सूरमा भोपाली' जैसे किरदारों की हो, फ़िल्म के ऐसे तमाम किरदारों की लोकप्रियता आज भी बरकरार है.

मगर कम ही लोगों को इसकी जानकारी होगी कि 'शोले' के सबसे पसंदीदा किरदारों में से एक, 'बसंती' का रोल निभाने में हेमा मालिनी की कतई दिलचस्पी नहीं थी. उन्होंने निर्देशक रमेश सिप्पी को फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया था.

'शोले' की रिलीज़ की 50वीं वर्षगांठ के मौके़ पर बीबीसी हिंदी से ख़ास बातचीत के दौरान हेमा मालिनी ने इस बारे में विस्तार से बात की कि उन्होंने 'बसंती' के बातूनी तांगेवाली के किरदार को निभाने से आख़िर क्यों मना किया था.

उन्होंने इसकी मुख्य वजह 'बसंती' के किरदार का छोटा होना बताया.

हेमा मालिनी ने कहा, "फ़िल्म 'शोले' में बसंती का रोल निभाने से पहले मैं निर्देशक रमेश सिप्पी के साथ 'अंदाज़' और 'सीता और गीता' जैसी हिट फ़िल्मों में बतौर हीरोइन काम कर चुकी थी.''

''रमेश सिप्पी ने जब मुझे 'बसंती' का रोल ऑफ़र किया तो मैंने उनसे कहा कि यह किरदार ज़्यादा बड़ा नहीं है और मैं आपकी दो फ़िल्मों में हीरोइन रह चुकी हूं.''

मैंने उनसे कहा, ''इतने सारे किरदारों के बीच इस तरह का एक छोटा-सा किरदार करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा.''

इनकार के बाद मान क्यों गईं हेमा मालिनी? image SHOLAY फ़िल्म 'शोले' में बसंती का किरदार एक आत्मनिर्भर ग्रामीण महिला की छवि लेकर आया था.

मगर फिर ऐसा क्या हुआ कि मल्टीस्टारर फ़िल्म 'शोले' में 'बसंती' के रोल के लिए उन्होंने निर्देशक रमेश सिप्पी को हां कर दी.

हेमा मालिनी बताती हैं, "किरदार में दिलचस्पी नहीं दिखाए जाने के बावजूद निर्देशक रमेश सिप्पी चाहते थे कि मैं ही 'बसंती' बनूं. उन्होंने मुझे कहा कि यह किरदार तुम कर लो वरना बाद में तुम्हें बहुत पछतावा होगा. रमेश जी मेरे अच्छे दोस्त थे. उनके समझाने के बाद फिर मैंने 'बसंती' के रोल के लिए हामी भर दी".

शुरू में हेमा मालिनी की ओर से 'बसंती' का रोल ठुकराए जाने के पीछे एक और बड़ी वजह थी.

'शोले' में बसंती का रोल निभाने से पहले उन्होंने हिंदी सिनेमा के पर्दे पर कभी किसी फ़िल्म हीरोइन को तांगा चलाते नहीं देखा था.

हेमा मालिनी बताती हैं कि फ़िल्म की पृष्ठभूमि भी शहरी होने की बजाय ग्रामीण थी तो ऐसे में वो खुद को उस किरदार में फिट होता हुआ देख नहीं पा रही थीं.

image BBC

हेमा मालिनी कहती हैं 'शोले' में जिस तरह से 'बसंती' को एक गांव की लड़की और वो भी तांगेवाली के रूप में दिखाया गया है, हिंदी सिनेमा में 'शोले' से पहले ऐसी मिसाल कभी देखने को नहीं मिली थी.

वो कहती हैं, "आज से 50 साल पहले बसंती को एक तांगेवाली और एक आत्मनिर्भर लड़की के रूप में पेश किया गया था. उस दौरान फ़िल्म की हीरोइनों को इस तरह से पर्दे पर दर्शाये जाने का चलन नहीं था. एक ग्रामीण लड़की को इस तरह से आत्मनिर्भर दिखाना इस किरदार की एक बड़ी ख़ासियत थी जिसने लोगों पर गहरा असर डाला."

हेमा मालिनी कहती हैं कि उन्हें इस बात की बेहद ख़ुशी है कि बाद में उन्होंने आख़िर में 'बसंती' के रोल को स्वीकार किया और फ़िल्म में काम किया. वो कहती हैं कि ऐसा नहीं होता तो उन्हें ताउम्र एक बेहद उम्दा किरदार नहीं निभाने का मलाल होता.

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बसंती का किरदार क्यों इतना लोकप्रिय हुआ? image SHOLAY शोले के सारे किरदार बेहद लोकप्रिय हुए, लेकिन बसंती के किरदार को अलग शोहरत मिली

50 साल बाद आज भी लोगों में 'बसंती' के किरदार के लोकप्रिय होने के बारे में बात करते हुए हेमा मालिनी कहती हैं, "आज भी मैं जहां कहीं भी लोगों के बीच जाती हूं, लोग मुझे 'बसंती' के नाम से पुकारना ज़्यादा पसंद करते हैं."

वो कहती हैं, "उनके 'बसंती' कहते ही मेरे चेहरे पर ख़ुशी का भाव छलक आता है. इतना ही नहीं, लोग सार्वजनिक सभाओं में आज भी मुझे 'बसंती' के संवाद बोलने का आग्रह करते हैं और जब मैं ऐसा करती हूं तो लोग ख़ुशी से झूम उठते हैं."

हेमा मालिनी कहती हैं कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि 'बसंती' का उनका यह किरदार इस कदर लोकप्रिय हो जाएगा.

वो कहती हैं कि उन्हें शूटिंग के दौरान इस बात का एहसास ज़रूर हो गया था कि वो एक 'स्पेशल' फ़िल्म में काम कर रही हैं.

हेमा मालिनी कहती हैं कि आज जब वो पीछे मुड़कर देखती हैं तो उन्हें इस बात की बेहद ख़ुशी होती है कि उन्होंने तमाम आशंकाओं के बावजूद 'बसंती' के किरदार को अपनाया और पर्दे पर बढ़िया ढंग से निभाया.

हेमा मालिनी कहती हैं कि 'बसंती' के किरदार की लोकप्रियता का आलम ये है कि कॉमेडी और लाइव शोज़ में आज भी 'बसंती' की मिमिक्री कर लोगों को हंसाने की कोशिश की जाती है.

वो कहती हैं कि सिर्फ़ बसंती ही नहीं बल्कि 'शोले' के हर छोटे-बड़े किरदार की अपनी-अपनी ख़ासियतें रही हैं और यही वजह है कि फ़िल्म के तमाम किरदार आज भी लोगों के ज़हन में ज़िंदा हैं.

'शोले' की रिकॉर्ड-तोड़ कामयाबी को लेकर हेमा मालिनी कहती हैं, "फ़िल्म की ख़ूबसूरती इस बात में छिपी है कि हर एक किरदार को बेहतरीन ढंग से पेश किया गया था. मैं ये नहीं कह सकती कि जय-वीरू, ठाकुर, गब्बर या फिर बसंती की वजह से लोगों को यह फ़िल्म इस क़दर पसंद आई थी."

वो कहती हैं, "किसी किरदार ने चाहे एक डायलॉग बोला हो या फिर एक भी संवाद ना बोला हो, लोग उस किरदार को भी आज तक याद करते हैं. इसके लिए पूरा श्रेय फ़िल्म के किरदारों को उम्दा तरीके से लिखने वाले सलीम-जावेद को दिया जाना चाहिए."

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'जब तक है जान, मैं नाचूंगी' की शूटिंग सबसे चुनौतीपूर्ण अनुभव' image SHOLAY हेमा मालिनी ने बताया कि कैसे फ़िल्म के एक गाने की शूटिंग उनके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण अनुभव बन गई थी

फ़िल्म 'शोले' की ज़्यादातर शूटिंग बंगलौर (अब बेंगलुरू) के बाहर, पहाड़ी और मैदानी इलाक़ों में हुई थी. ऐसे में तमाम कलाकारों के लिए शूटिंग करना चुनौतियों से भरा था.

हेमा मालिनी ने फ़िल्म 'शोले' में उनपर फ़िल्माए गए बेहद लोकप्रिय गाने 'जब तक है जान, मैं नाचूंगी... ' की शूटिंग को अपने लिए फ़िल्म का सबसे चुनौतीपूर्ण अनुभव बताया.

हेमा मालिनी बताती हैं, "इस गाने की शूटिंग लगातार 15 दिन तक चली थी. उन दिनों गर्मी का मौसम था और ऐसे में रोज़ाना धूप में शूटिंग करना काफ़ी मुश्क़िल हुआ करता था. हम पसीना-पसीना हो जाया करते थे और हमारी त्वचा भी काली पड़ जाती थी."

"इस गाने में मुझे नंगे पांव नाचते हुए दिखाया गया है. जब भी लॉन्ग शॉट्स में मेरे नंगे पैरों के शॉट्स लिए जाते थे तो मेरे लिए तपती हुई ज़मीन पर गाने के स्टेप्स करना बहुत कठिन हुआ करता था."

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सेट पर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की नज़दीकियां image Hema Malini Instagram शोले की शूटिंग के दौरान धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की नज़दिकियां बढ़ीं और दोनों को एक-दूसरे को जानने का मौक़ा मिला

कहते हैं कि 'शोले' की शूटिंग के दौरान हेमा मालिनी और धर्मेंद्र के बीच नज़दीकियां काफ़ी बढ़ गईं थीं.

इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान काफ़ी वक्त साथ गुज़ारने के चलते दोनों को एक-दूसरे को और क़रीब से जानने का मौक़ा मिला था.

हेमा मालिनी ने 'शोले' की शूटिंग के दौरान धर्मेंद्र से और गहरी होती अपनी दोस्ती और शूटिंग के दौरान बिताए हसीन पलों को भी याद किया.

हेमा मालिनी ने कहा, "हां, ये सच है कि साथ-साथ 'शोले' की शूटिंग करते हुए हम दोनों की दोस्ती और गहरी हो गई थी. फ़िल्म में हम एक-दूसरे के अपोज़िट थे तो ऐसे में हमें एक-दूसरे के साथ बहुत वक्त गुज़ारने का मौका मिलता था. आउटडोर शूटिंग में अक्सर हम साथ हुआ करते थे. ऐसे में हम एक-दूसरे के साथ अपनी ख़ुशियों के साथ-साथ अपने ग़म भी बांटते थे."

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क्लाईमैक्स क्यों बदला गया? image SIPPY FILMS शोले का क्लाइमैक्स बदला गया था

'शोले' का क्लाइमैक्स पहले कुछ और था. जब फ़िल्म बनी थी तो इसमें दर्शाया गया था कि फ़िल्म के अंत में रिटायर्ड पुलिस अधिकारी ठाकुर अपना बदला पूरा करने के लिए गब्बर को अपने पैरों तले कुचलकर मार देता है.

मगर 1975 में देश में लगे आपातकाल के दौरान सेंसर बोर्ड की ओर से जताई आपत्ति के बाद 'शोले' के क्लाइमैक्स में बदलाव करने के लिए मजबूर किया गया था.

बदलाव के साथ रिलीज़ की गई फ़िल्म में दिखाया गया था कि कैसे क्लाइमैक्स के दौरान ठाकुर गब्बर को पुलिस के हवाले कर देता है.

बीबीसी हिंदी ने हेमा मालिनी से 'शोले' के क्लाइमैक्स के साथ छेड़छाड़ किये जाने को लेकर उनकी राय जाननी चाही. उन्होंने कहा, "किसी भी फ़िल्म की मेकिंग के साथ इस तरह की दखलअंदाज़ी नहीं की जानी चाहिए."

उन्होंने कहा, "एक निर्देशक एक कॉन्सेप्ट के आधार पर, फ़िल्म की तमाम कड़ियों को जोड़कर और एक सशक्त सोच के साथ फ़िल्म बनाता है. ऐसे में उसके विज़न के साथ छेड़छाड़ करने को सही नहीं ठहराया जा सकता है."

हेमा मालिनी ने इंटरव्यू के अंत में कहा, "लोगों के दिलों में हमेशा के लिए जगह बनाने वाली 'शोले' जैसी फ़िल्में एक ही बार बनती हैं और ऐसी फ़िल्म को दोबारा बनाने के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता है."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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